Saturday, February 27, 2010

स्वयं में शरणागत होकर ही पिन्ड द्ररशण संभव है।

हम प्रायःअपनी विचारों को दूसरों पर क्रियान्वयन होते देख़ना चाह्ते हैं इससे सन्तुष्टि मिलती है। दूसरो पर प्रभाव नही होने पर क्षोभ उत्पन्न होता हैऔर हम उत्तेजित हो जाते हैं। यही उत्तेजना ही क्रोध वैमनस्य उत्पन्न होने का कारण बनता है। जिससे हम या तो अपने आप में सिमट कर कुंठित होते हैं या बद्ले की भावना से प्रतिकार की लालच में अपना ब्यक्तित्व खो देते हैं।तनावग्रस्त जीवन जीते हैं,हमारा अंतः और बाह्य आचरण में अंतर आता है फलत:हमारे द्वारा पद्दी गयी सुनी गयी बौद्धिक विकास की बातें विलीन हो जाती हैं हम आवेश में प्रतिज्ञा करते भी हैं तो तक्षण क्रियान्वयन नही होता है,अपने में अविश्वास उत्पन्न होता है।यह तनाव,अविश्वास अपने में शरणागत होकर ही दूर हो सकता है। अपने शरण में जाकर ही हम स्वंय को पहचान कर अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। अन्यथा एक छ्दम दोहरा ब्यक्तित्व धारण कर पूरी जिन्दगी जीना होता है,दूसरे पर आश्रित रहने की प्रव्रति रहती है,बार बार हमें हमारे बनाये ब्यक्तित्व को बचाने का प्रयास करते रहना पड्ताहै और हम दिशाहीन जिन्दगी जीकर अपने लक्ष्य से दूर भटकते हैं। लक्ष्य अप्राप्ति पर हम दूसरों को दोष देते हैं।अपनी शरण में जाना निजी कर्तब्य के प्रति जाग्रत होना,अधिकार को भलीभातिं पहचाना,कायरता और दूसरों कीअश्रितता त्यागना है तभी हम अपने आप में रम सकते हैं,त्रिप्त रह सकते हैं, हमारा अंत;और बाह्य ब्यक्तित्व में समानता आ सकती है।जिससे हम स्वयं का पिन्ड द्श्रण कर ब्रह्मान्ड का र्द्शण कर सकते है।क्रमश:

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