Monday, January 25, 2010

पिन्ड में ही ब्रह्मांड है।

मनुष्य का साढ़े तीन हाथ का शरीर,जो स्थूल शरीर का आवरण मात्र है ,सम्पूणॆ शक्तियों का भन्डार है।जो विश्व ब्रह्मान्ड में घटित हो रहा है वह इस छोटे से पिन्ड में भी हो रहा है क्योंकि इस आवरण शरीर के भीतर एक भाव शरीर है जिसमें भाव लहरियाँ प्रतिछण उद्देलित हो रही हैं यही लहरियाँ ही कल्पना करने की अपार असीमित शक्तियाँ प्रदान करती हैं,अन्तःकरण में लाख लाख बृतियों को उद्देलित करती हैं और भाव जगत कीअनूभूतियों को स्थूल जगत में प्रत्यछ अनुभव कराती हैं।भाव जगत में मारण मोहन ऊच्चाटन की प्रक्रियाओं को स्थूल जगत में देखा जा सकता है।सूछ्म का स्थूल में रूपान्तरण में बुद्ध प्रग्या की प्रेरणा है जो और गहराई में जाने का संकेत देती है।वह संकेत देती है कि तुम्हारे भीतर मैँ प्रूणॆ रूप से बिराजमान हूँ। कभी कभी हमारे अन्तःकरण में प्रकाश की किरण की चमक सदृश ऊस देवता का बोध कराती है,लेकिन हमारा अहंभाव वह पृथक बुद्धि उत्पन्न कराती है कि ब्याप्त शक्ति का जो रहस्य, मन और बुद्धि के रूप में घटित हो रहा है वह पिन्डस्थ देवता की शक्ति से भिन्न है। यह अन्तःकरण में स्थित और बाह्य जगत में स्थित ब्याप्त शक्ति का सामंजस्य के अभाव के कारण होताहै।बुद्ध प्रग्या और भी गहराई में स्थित होकर चलायमान है , जो और गहराई में जाने का संकेत देती है, जहाँ शब्द अथॆ भाव और क्रिया एक दूसरे से इस प्रकार अनुबंध हैं कि उनका अलग होना संभव नही है,और जब अलग होने की प्रक्रिया घटित होने लगती है तो अनुबंध भाव भी मिट जाता हैऔर उसमें स्पंद या गति भी नही होने का भाव होता है जो मनुष्य को समस्त प्रपंचों से मुक्त होकर स्वआत्माराम की उपलब्धि कराता है जिसे सिद्धि कहते हैं।लेकिन इसमें पद और पदाथॆ का भेद स्पष्ट रहता है।अंतःकरण और बाह्य जगत की ब्याप्त शक्ति का सामंजस्य मानव पिन्ड मेँ स्थित बुद्धि और उस महाशक्ति का सामंजस्य है जिसे पाने के लिये आसन तपस्या साधना ध्यान धारणा की जाती है।अंतःकरण भाव शरीर में उत्पन्न लहरियाँ उस पराशक्ति की उदबोधन मात्र है जो हमें याद कराती है कि अंतॆयामी पिन्डस्थ देवता ने मनुष्य बुद्धि को मोछ प्राप्त करने के लिये इंगित किया हैकि जो हम ध्यान धारणा से प्राप्त बुद्धि को ब्यवहार में लायें, यही बतलाता है कि जो ब्रह्मान्ड में है वही पिन्ड में है।

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