Sunday, January 3, 2010

भक्ति

भक्ति के लिये श्रद्धा उसी प्रकार है जैसे दीपक के लिये तेल।श्रद्धावत भक्ति में ही मन लगता है।ईश्वर हमे भक्तिरूपी पारसमणि दिया है जिसके छूने से ही लोहा सोना मे बदल जाता है़,लेकिन रेशमी कपडा में लपेटकर डिबिया मे इसे रखने पर डिबिया सोना नही बनता क्योंकि लपेटन के कारण स्पश नही होता है। उसीप्रकार भक्ति तत्व भी असंयम,आवेग, आलस्य, अग्यान,अंहकार, तृष्णारूपी मखमली लपेटन के कारण सदबुद्धि प्राप्त करने में बाधक होता है, परमात्मा को नकारता है जिसके हम अंश हैं और उसे ढ़ुढ़ंने मे पुरा जीवन ब्यतीत कर देते हैं,जैसै कस्तुरी मृग अपने बदन में ही छिपे कस्तुरी गंध की खोज मे भटकता रहता है।
मनुष्य जब तक असंयमित रहता हैअस्त ब्यस्त रहता है, तनाव में रहता है,अपने श्वांस पर नियत्रण नही रख पाता है फलतःआवेग भी अनियंत्रित होता है। यही आवेग ही उसे अकारण ऊत्तेजित कराता है,विवेकहीन बनाता है,अंहकारी बनाता है और जिस प्रकार छुईमुई पौधा बालकों के लिये खेल कौतुहल बन जाता हे उसी प्रकार आवेशित मनुष्य भी दूसरों के लिये खिलौना बन जाता है। यह जीवनी शक्ति को कम करता है।असंयमित ब्यक्ति में गंभीरता नही होती है,जबकि गंभीरता ही संतुलन धैय प्रदान करता है.संघषशील होने मे सहायक होता है।जूझारू ब्यक्ति ही लछ्य तक पहुंच सकता है।जीवन में अधिक ऊचांई को छूने के लिये संतुलन की अधिक आवश्यकता होती है।यही संतुलन ही काम क्रोध,लोभ मोह को बांधकर ऊन्नतशील बनाता है।संतुलित ब्यक्ति जुझारू ,आत्मबली होता है,आलसी नही हो सकता है। क्योंकि आलसी सदा ही दूसरों की सहायता के लिये आकाक्छित रहता है ,और चाहिये की रट लगाये रहता है.अपने जीवन और ईश्वर, भाग्य को कोसता रहता है ,क्रोधी होता है।संतुलन के अभाव में ,क्रोध ऊत्पन होता है जिससे वह अन्दर से डरा घबराया रहता है।
इन कमजोरियों को आत्मचिन्तन करके ही दूर किया जा सकता है।आत्मचिन्तन ही हमारा पथप्रदशक बनकर हमारी अधिभौतिक, अधिदैविक,आध्यात्मिक मूल्य को बढ़ा सकता है, हममे जीवनी शक्ति संचार कर आत्मबली बना सकता है, जिस प्रकार बढ़ई काष्ठ को रूप देकर बाजार मे उसका मूल्य प्रदान करता है़।यदि हम आत्मचिन्तन नही कर सकते तो सदगुरू की सतसंग करें,वे हमें आत्मचिन्तन की ओर ले जायेंगे।जो हमें स्थिरता,संतुलन प्रदान करेंगे।क्योंकि गुरू ग‍ु‌.. अन्धकारऔर रु..प्रकाश,हमें अन्धकार से प्रकाश कीओर ले जाते हैं।अन्यथा मातापिता के सालोंसाल तक प्रदत अच्छी संस्कार भी उसे राम तो नही बना सकेगा,कुत्सगीं का छणिक प्रभाव उसे रावण अवश्य बना देगा।सदगुरू ही हमें आत्मसाछ्ताकार कराता है,जो ब्रह्मान्ड मे है बाहर ब्याप्त है वह हमारे अन्दर ही विद्यमान है का बोध कराता है।

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