Monday, October 4, 2010

आद्त और स्वभाव

आद्त और स्वभाव

आदत एक अनुशासनात्मक प्रक्रिया है,यह मनुष्य को जीने का ढंग पर जोर देता है।किसी भी कार्य को बार बार एक ही प्रकार की करने की क्रिया आदत मे बदलती है,यदि ईसे ईमानदारी से किया जाये तो यह अभ्यास मे परिणित होता हैऔर यह अभ्यास ही मनुष्य कोएक स्थिर चित,लक्ष्य प्रदान कर सकता है।सभी धर्मग्रन्थो मे इसकी विषेताअओ का अलग अलग ढंग से जिक्र किया गया है। यदि हम एक रोजमर्रे ढ़ंग पर न जीए तो हमारी जीवन प्रणाली अस्त-ब्यस्त हो जाती है,सोच विचार कार्य मे एकरुपता नही होती है, ,क्योकि जब हम अस्न्तुलित रहते है, तनाव मे रहते है,तब सही ढंग से सोचने कार्य भी नही कर सकते हैऔर लक्ष्यहीन होकर भटकते है। ईसी भट्कन की अवस्था मे हम अनियत्रित होकर असमाजिक, निन्दनीय कार्य भी कर सकते है। हम एक छ्दम व्यक्तित्व मे जीते हुऐ पूरी जिन्दगी गुजार देते है,हममे समर्पण की भावना जाग्रत ही नही होता है,फलतः अहंकार उत्पन्न होता है और अहंकारवाद अंहरूपी ज्वाला मे हम अपना ब्यक्तित्व को झुलसाकर दिशाहीनहोते है।आज हमारे चारो ओर हर ब्यक्ति अधिभौतिक तन्द्रा मे रहकर द्वेष कलह ईर्ष्या मे लिप्त है और दिशाहीन संग्रह के लोभ मे समाज और राष्ट्र को कंलकित कर रहा है।कथित अर्थसंग्रहलोलुपता,भ्रष्टाचार नक्सलसम्स्या हमारी ब्यक्तिगतसम्स्या ईसका ज्वलंत उदाहरण है। यदि हम अपनी दिनचर्या रहनसहन की आदत मे इस प्रकार अविचलित रहेंगें तो प्रक्रिति भी पर्यावरण के माध्यम से अनियत्रित होकर एक विस्फोट्क स्थिति को प्राप्र्त होगी। आदत से हम अभ्यास का निर्मान कर सकते हैं और अभ्यास से वैराग्य। यही वैराग्य ही हमे सहनशक्ति प्रदान कर सकता है,और यदि हममे थोडी सहनशीलता आ जाये तो हम अपने अंहकार को नियत्रित कर सकते है और अभ्यास से वैराग्य। ,और यदि हममे थोडी सहनशीलता आ जाये तो हम अपने अंहकार को नियत्रित कर सकते है फलतः हम बोलने की अपेक्षा सुनने का अभ्यास जाग्रत कर सकते है।सुनना ही हमारे बहुत सी समस्याओं का समाधान करने का कारण बन सकता है,हम द्रष्टा बनकर जी सकते है और यही भाव ही हमे शांति दे सकता है, तभी हम समाज,ब्यक्ति ,राष्ट्र निर्मान मे सहायक हो सकते है…

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